अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष-2023:नाम के मोटे,पर पोषण के पॉवर हाउस हैं मोटे अनाज

मोटे अनाज (मिलेट)। मसलन बाजरा, ज्वार, रागी/मडुआ, सावां एवं कोदो आदि। ये अनाज सिर्फ नाम के मोटे हैं। पोषक तत्त्वों के मामले में ये सौ फीसद खरे हैं। खाद्यान्न के रूप में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाले चावल या गेहूं इस मानक पर इनके सामने कहीं ठहरते नहीं। गेहूं में मोटापा बढ़ाने वाले ग्लूटोन (एक तरह का प्रोटीन) से फ्री इन अनाजों में भरपूर मात्रा में डायट्री फाइबर, आइरन, कैल्शियम, वसा, कार्बोहाइड्रेट, मैग्नीशियम और प्रोटीन मिलता है। यही वजह है कि तमाम शोधों के बाद आधुनिक विज्ञान इनको पोषण के ‘पॉवर हाउस” बता रहा है। ये अनाज कुपोषण के खिलाफ वैश्विक जंग के सबसे प्रभावी हथियार बन सकते हैं।
रही कुपोषण की बात तो द स्टेट ऑफ फण्ड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन वर्ल्ड की रिपोर्ट के अनुसार दुनियां में करीब 76.8 करोड़ लोग कुपोषण की चुनोती का सामना कर रहे। भारत में यह संख्या करीब 22.4 है। यही वजह है कि मोटे अनाज कुपोषण के खिलाफ जंग साबित हो सकते।
इनकी पोषण संबंधी खूबियों के ही नाते आज दुनियाभर के वैज्ञानिक इनको सुपर फ़ूड की संज्ञा दे रहे हैं। इन अनाजों को लोकप्रिय बनाने के लिए “रेडी टू ईट” और “रेडी टू कूक” की रेसिपी बना रहे हैं। आज इन अनाजों की जिन खूबियों की चर्चा दुनियां कर रही है उनमें से कई बातें तो खेतीबाडी और मौसम की सटीक जानकारी देने वाले महान कवि घाघ के दोहों/ कविताओं में भी है। अपने दोहों/कविताओं में घाघ ने इनकी बोआई के तरीकों के साथ इनकी खूबियों और रेसिपी तक का जिक्र किया है।
मसलन बाजरे की खूबी के बाबत घाघ कहते हैं, “उठ के बाजरा यू हंसि बोलै, खाये बूढ़ा जुवा हो जाय” इसी तरह अपने एक दोहे में वह बताते हैं कि मडुआ के भात के साथ मछली और कोदो के भात को दूध या दही के साथ खाने में कोई जवाब नहीं है (मडुआ मीन, पीन संग दही, कोदो का भात दूध संग दही)। इसी तरह एक आयुर्वेदिक दोहे में कहा गया है, “रोटी मक्के की भली,खा लें यदि भरपूर बेहतर लीवर आपका टीबी भी हो दूर”। पंजाब में तो अब भी मक्के की रोटी और सरसों के साग को लाजवाब भोजन माना जाता है।
पोषक ही नहीं इकोफ्रेंडली भी हैं मोटे अनाज
पोषक तत्त्वों का पावरहाउस होने के साथ मोटे अनाज इकोफ्रेंडली भी हैं। कम खाद, पानी और किसी तरह की भूमि में उगने की वजह से इनको उगाने खेत की तैयारी से लेकर सिंचाई तक कम पानी की जरूरत के नाते जोताई एवं सिंचाई के मद में खर्च होने वाली ऊर्जा या डीजल की बचत पर्यावरण संरक्षण से ही जुड़ती है। खाद चूंकि ये रोग प्रतिरोध होती है। लिहाजा खाद एवं कीटनाशकों के जानलेवा जहर से जन, जमीन एवं जल का काफी हद तक इन रसायनों के जहर से बचे रहते हैं।
मोटे अनाजों का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी हमारी सभ्यता
अपनी इन्हीं खूबियों के नाते यह प्राचीन काल से हमारे पूर्वजों की थाली का मुख्य हिस्सा रहे हैं। इनका इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता का। ईसा पूर्व 3000 साल पहले की दुनियां की प्राचीनतम सभताओं में से एक सिंधु घाटी सभ्यता में इनके अवशेष मिलना इसका प्रमाण है।
सिर्फ भोजन नहीं हमारी परंपरा थे मोटे अनाज
बहुत समय पहले नहीं हरित क्रांति के पहले तक यह हमारे फसल चक्र एवं भोजन का हिस्सा थे। करीब पांच-छह दशक पूर्व , गोजई कुछ फसलों के नाम ही थे। मसलन धान-कोदो की एक साथ बोई गई फसल को धनकोदई बोलते थे। इसी तरह गेंहू एवं जौ को मिलाकर बोई गई फसल गोजई होती थी। ये फसलें अपनी परंपरागत में इतनी रच-बस गई थीं कि उस दौर में गाँव मे कुछ लोग भी गोजई एवं कोदई के नाम से मिल जाते थे।
पोषक ही नहीं इकोफ्रेंडली भी हैं मोटे अनाज
पोषक तत्त्वों का पावरहाउस होने के साथ मोटे अनाज इकोफ्रेंडली भी हैं। कम खाद, पानी और किसी तरह की भूमि में उगने की वजह से इनको उगाने खेत की तैयारी से लेकर सिंचाई तक कम पानी की जरूरत के नाते जोताई एवं सिंचाई के मद में खर्च होने वाली ऊर्जा या डीजल की बचत पर्यावरण संरक्षण से ही जुड़ती है। खाद चूंकि ये रोग प्रतिरोध होती है। लिहाजा खाद एवं कीटनाशकों के जानलेवा जहर से जन, जमीन एवं जल का काफी हद तक इन रसायनों के जहर से बचे रहते हैं।
मोटे अनाजों का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी हमारी सभ्यता
अपनी इन्हीं खूबियों के नाते यह प्राचीन काल से हमारे पूर्वजों की थाली का मुख्य हिस्सा रहे हैं। इनका इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता का। ईसा पूर्व 3000 साल पहले की दुनियां की प्राचीनतम सभताओं में से एक सिंधु घाटी सभ्यता में इनके अवशेष मिलना इसका प्रमाण है।
सिर्फ भोजन नहीं हमारी परंपरा थे मोटे अनाज
बहुत समय पहले नहीं हरित क्रांति के पहले तक यह हमारे फसल चक्र एवं भोजन का हिस्सा थे। करीब पांच-छह दशक पूर्व , गोजई कुछ फसलों के नाम ही थे। मसलन धान-कोदो की एक साथ बोई गई फसल को धनकोदई बोलते थे। इसी तरह गेंहू एवं जौ को मिलाकर बोई गई फसल गोजई होती थी। ये फसलें अपनी परंपरागत में इतनी रच-बस गई थीं कि उस दौर में गाँव मे कुछ लोग भी गोजई एवं कोदई के नाम से मिल जाते थे।