August Kranti : अंग्रेजों ने लगा दिया था हाउस टैक्स, विरोध में घर छोड़कर सड़क पर रहने लगे बनारस के लोग

वाराणसी, कुमार अजय। गंगा के पानी की तासीर में ही विद्रोह का पुट घुला हुआ है। कल रहा हो या आज, हमेशा से ही बे-थाह रहा है विद्रोही संत कबीर की नगरी बनारस का मिजाज। कोई भी बात मन को छू गई तो काशी पुराधिपति बाबा विश्वनाथ की अवघड़ दानी प्रवृत्ति की तरह बांहे पसार कर उमंग से अपना लिया।
स्वत:स्फूर्त आंदोलनों से गोरों को उनकी औकात बताया
इस फक्कड़ मना स्वीकृति में भाषा-भूषा, प्रांत-क्षेत्र की कोई बंदिश नहीं। इसी तरह यदि कोई बात मन में चुभ गई तो सामने काल ही क्यों न खड़ा हो, अंजाम से बेपरवाह हाथ आगे बढ़ाया और दिलेरी के साथ मौत से भी पंजा लड़ाने में कोई हिचक नहीं। यही वह वजह रही कि स्वातंत्र्य समर के गांधी कालखंड से दशकों पहले भी यह बागी शहर बरतानवी गुरुर से टकराता रहा, स्वत:स्फूर्त आंदोलनों से गोरों को उनकी औकात बताता रहा।
फिर वह चाहे 1781 में बनारस के तत्कालीन राजा चेत सिंह के आन के सवाल पर भड़का विद्रोह हो, जिसमें सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे गए और वारेन हेंस्टिंग्स को जनाना वेष धरकर चुनार भागना पड़ा। या फिर मोर्चा रहा हो, सन् 1810 के घरछड़ी आंदोलन का, जिसमें हाउस टैक्स के सवाल पर अवाम की नाफरमानी से हैरान प्रशासन को खून का घूंट पीकर टैक्स का आदेश वापस लेना पड़ा। एक और स्वत:स्फूर्त आंदोलन खड़ा हुआ 1852 में, जब वृषोसर्ग पर रोक के खिलाफ बनारस वाले खड़े हुए और अंग्रेज अफसरों को सिर पर पांव रखकर भागना पड़ा। 1857 की जनक्रांति में भी बनारस गवाह बना गांवों के सैकड़ों किसानों की शहादत का, जो खुद अपने हाथों से फांसी का फंदा चूमकर आम से लगे पेड़ों की शाखों पर लाश बनकर झूल गए।
1851 में राम मंदिर तोड़कर जलकल बैठाने की हिमाकत पर बिना किसी के नेतृत्व के ही समूचा शहर जनज्वार की तरह भदैनी उमड़ आया और सारी मशीनों को गंगा में जलसमाधि दे दी। राम हल्ला के नाम से मशहूर यह आंदोलन बनारस के इतिहास के पन्नों में सबसे बड़ी हड़ताल के रूप में दर्ज है।
111 साल पहले ही असहयोग आंदोलन का बीज डाला बनारस ने
भारतीय स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर गांधी जी के असहयोग आंदोलन (1921) के 111 साल पहले ही अवज्ञा की नजीर कायम कर चुके बनारस के घरछड़ी आंदोलन की बात करते हैं। बनारसियों के बागी तेवरों की थाह देने वाले सूत्रों को समझते हैं और उनका सिरा पकड़ने का प्रयास करते हैं। बात है सन् 1810 की सर्दियों की।
बनारस के मकानों पर हाउस टैक्स का बोझा डाल दिया
राजा चेत सिंह की अगुआई में हुए जनक्रांति के अभी 30 साल पूरे नहीं हुए थे। बनारस वाले राख में ढंकी विद्रोह की चिंगारियों को अब तक पाले हुए थे। हुआ यह कि आम जनता से बगैर कोई राय मशविरा किए अंग्रेजी निजामत ने बनारस के मकानों पर हाउस टैक्स का बोझा डाल दिया। महंगाई और अभाव व बोझ के चलते दोहरी कमर के अब टूट जाने की स्थिति थी। उल्लेखनीय यह भी कि बरतानवी हुकूमत ने बिहार व बंगाल में यही टैक्स लाद कर उसकी वसूली भी शुरू कर दी थी। यकीनन वे मुगालते में थे कि दोनों प्रांतों की तरह बनारस में भी बगैर किसी खिलाफत के इस बोझ का वजन उठा लिया जाएगा। विरोध की गुंजायश बनी तो सख्ती बरतकर वसूली का रास्ता निकाला लिया जाएगा। लेकिन उनका अनुमान गलत साबित हुआ।
घोषणा के साथ पूरा शहर उद्वेलित हो उठा
घोषणा के साथ पूरा शहर उद्वेलित हो उठा। इस बार बगैर किसी झड़प के सयाने बनारसियों ने देश के सबसे पहले शांतिपूर्ण असहयोग आंदोलन का बीड़ा उठाया और अंग्रेजी प्रशासन को नाको चने चबवाया। होता यूं था कि समूचे शहर की आबादी भोर में मुंह अंधेरे ही पूड़ी तरकारी की पोटली दबाए घरों पर ताला जड़कर सपरिवार गंगा के घाटों या बहरी अलंग के बागबगीजों की ओर निकल जाती थी। प्रशासनिक अमला हर रोज मोहल्लों के चक्कर लगाता था, हर घर की ताला बंदी से मायूस थका-हारा खाली हाथ लौट जाता था। बनारसियों की तो मौज।
17 दिनों तक घरछड़ी पूरी अकड़ के साथ चलती रही
सारा दिन पिकनिक पर, गुनगुनी धूप खाते थे, देर शाम ढलने पर दाल भाजी छौंकने बघारने के बाद तबीयत से खर्राटे लगाती थी। बाजारों की हालत और बुरी। व्यापारियों ने दुकाने के पल्ले मारकर अपनी सक्रिय भागीदारी दर्ज कराई। 26 दिसंबर 1810 से 11 जनवरी यानी पूरे 17 दिनों तक घरछड़ी पूरी अकड़ के साथ चलती रही।
इधर इस माया से परेशान निजामत बस टुकुर टुकुर ताकते हाथ मलती रही। जब आसपास के जिलों के बाशिंदे भी बनारस के आंदोलन से जुड़े तो यही से कलकत्ता (अब कोलकाता) चलो का नारा दिया गया। आजिज आ चुके अफसरों को लंदन तक घंटी बजानी पड़ी। बड़े ही बेआबरू होकर फरमान को ठंडे बस्ते में ठिकाने लगाना पड़ा।
1960 के दशक तक मनाया जाता रहा त्योहार घरछड़ी का
शहर के बुजुर्गवार बताते हैं कि इस पहले असहयोग आंदोलन की जीत की याद में शहर में हर साल 26 दिसंबर को घरछड़ी एक लोकपर्व में रूप में प्रतिष्ठित थी। लोग इस तारीख को घरों पर ताला जड़कर सारी रात भोजभात के साथ रतजगा करते, आजादी के गीत गाते थे, दूसरे दिन पौ फटने के बाद घर आ जाते थे।