वाराणसी ज्ञानवापी प्रकरण : सिकंदर लोदी के कहर के बाद भी भव्यता की गवाही दे रहे थे ध्वंसावशेष विश्वेश्वर मंदिर

वाराणसी, शैलेश अस्थाना :1490 में सिकंदर लोदी द्वारा ध्वस्त किए गए विश्वेश्वरनाथ मंदिर में पांच भव्य मंडप थे। ध्वस्त किए जाने के बाद भी उस स्थल पर 1585 तक कोई निर्माण नहीं हुआ। यानी न तो मंदिर था, न मस्जिद। संस्कृत के प्रकांड विद्वान नारायण भट्ट के आग्रह पर राजा टोडरमल व मानसिंह ने 1585 में विश्वेश्वरनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया तो पुराने मंदिर का मानचित्र सामने रखा था। उन पांचों मंडपों में से पूर्व की ओर स्थित मंडप की टोडरमल ने मरम्मत कराकर भव्य स्वरूप प्रदान किया। इतिहासकार डा. मोतीचंद ने अपनी पुस्तक ‘काशी का इतिहास में लिखा है कि इस मंडप की माप 125 गुणा 35 फुट थी। यह रंगमंडप था और यहां धार्मिक उपेदश हुआ करते थे। टोडरमल ने मंडप की मरम्मत करा दी और मंदिर की कुर्सी सात फुट और ऊंची उठाकर सड़क के बराबर कर दी गई।
चौखूंटा था औरंगजेब द्वारा ध्वस्त किया गया मंदिर
1585 में राजा टोडरमल ने जिस विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया वह चौखूंटा और काफी भव्य था। उसकी प्रत्येक भुजा 124 फुट की थी। मुख्य मंदिर बीच में 32 फुट के गर्भगृह में जलधरी के अंदर था। गर्भगृह से जुड़े 16 गुणा 10 फुट के चार अंतर्गृह थे। इनके बाद 12 गुणा आठ फुट के छोटे अंतर्गृह थे, जो चार मंडपों में जाते थे। पूर्वी और पश्चिमी मंडपों में दंडपाणि और द्वारपालों के मंदिर थे। शायद इनकी मूर्तियां आलों पर स्थित थीं।
128 फुट थी मंदिर की ऊंचाई, बाहर था नंदी मंडप :
मंदिर के चारों कोनो पर 12 फुट के उपमंदिर थे। नंदीमंडप मंदिर के बाहर था। मंदिर की ऊंचाई 128 फुट थी। मंडपों और मंदिरों के शिखर 64 फुट और 48 फुट ऊंचे थे। मंदिर के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ था, जिसमें अनगिनत देवी-देवताओं के मंदिर थे।
1514 से 1595 तक था नारायण भट्ट का समय
मुगल सम्राट अकबर के शासन काल में संस्कृत के प्रकांड विद्वान नारायण भट्ट का समय 1514 से 1595 तक था। डा. मोतीचंद लिखते हैं, ‘लगता है उनके जीवन के बड़े काल में काशी में विश्वनाथ मंदिर नहीं था। यानी उस दौर में मंदिर का पुनर्निर्माण नहीं हुआ था और औरंगजेब के विध्वंस से पहले 15वीं सदी के विश्वेश्वर मंदिर के स्थान पर कोई मस्जिद भी नहीं बनी थी।
मुंगेर विजय के बाद टोडरमल को दिया था परामर्श
डा. मोतीचंद लिखते हैं कि अकबर के समय मंदिर निर्माण का श्रेय टोडरमल और नारायण भट्ट को जाता है। एगेलिंग द्वारा संपादित ‘कैटलाग आफ संस्कृत मैन्यस्क्रिप्ट्स के हवाले से डा. मोतीचंद ने लिखा है-दिवाकर भट्ट ने अपनी दानहारावली में कहा है- ‘श्री रामेश्वरसूरिसुनुरभवन्नारायणाख्यो महान्। येनाकार्यविमुक्तकै: सुविधिना विश्वेश्वरस्थापना। अर्थात रामेश्वर भट्ट के पुत्र नारायण भट्ट ने अविमुक्त क्षेत्र काशी में विधिपूर्वक विश्वेश्वर की स्थापना की। इतिहासकार डा. अल्तेकर का अनुमान है कि टोडरमल की सहायता से नारायण भट्ट ने 1585 ईस्वी में यह कार्य संपन्न किया।