पूर्णता के शिखर श्रीकृष्ण का जीवन दो सिरों में बंधा, जीवन रिश्तों के मायाजाल से दूर रहने का संदेश

नई दिल्ली, देवेंद्रराज सुथार। भारतीय समाज में सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वकालिक तौर पर पूजनीय श्रीकृष्ण एक ऐसे नायक हैं, जिनमें जीवन के समस्त पक्ष उपस्थित हैं। श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ा हर पहलू प्रेरणादायक है, जो हमें कठिन परिस्थितियों में भी सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखना सिखाता है। श्रीकृष्ण के जन्म से पूर्व ही उनकी मृत्यु का कुचक्र रचा जाना और कारावास जैसे नकारात्मक परिवेश में उनका पदार्पण किसी त्रासदी से कम नहीं था।
प्रतिकूल वातावरण के बावजूद श्रीकृष्ण ने जीवन की समस्त विधाओं को बहुत ही उत्साह से जीवंत किया है। उनकी संपूर्ण जीवन कथा कई रूपों में दिखाई पड़ती है। श्रीकृष्ण उस समग्रता के प्रतीक पुरुष हैं, जिनमें मानव, देवता, योगीराज तथा संत आदि समस्त गुण विद्यमान हैं। श्रीकृष्ण कर्म पर ही विश्वास करते हैं। श्रीकृष्ण का जीवन रिश्तों के मायाजाल और मोह-माया के बंधनों से दूर रहने का संदेश देता है। कंस हो या कौरव-पांडव, दोनों से ही श्रीकृष्ण के निकट के संबंध थे, लेकिन उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए रिश्तों के बजाय कर्तव्य को महत्व दिया।
एक बार पांडवों की ओर से श्रीकृष्ण दूत बनकर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर पहुंचे। वहां उनका राजसी सम्मान हुआ। दुर्योधन ने उन्हें भोजन के लिए निमंत्रित किया गया। उन्होंने निमंत्रण अस्वीकार कर दिया, तो दुर्योधन बोला, ‘जनार्दन! आपके लिए भोजन, वस्त्र तथा शय्या आदि जो वस्तुएं प्रस्तुत की गई हैं, आपने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया?’ श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘भोजन के लिए दो भाव- दया और प्रीति काम करते हैं। दया दीन को दिखाई जाती है, सो दीन तो हम हैं नहीं। आप अपने ही भाइयों से द्वेष करते हैं। जो पांडवों से द्वेष करता है, वह हमसे भी द्वेष रखता है। और जो द्वेष करता है, उसका अन्न कभी नहीं खाना चाहिए।’
कर्म प्रधान गीता के उपदेशों को यदि हम जीवन में अपना लें तो हमारी चेतना भी श्रीकृष्ण से जुड़ सकती है। कृष्ण का जीवन दो सिरों में बंधा है। एक ओर वेणु है, जिसमें सृजन का संगीत है, प्रमोद है और रास लास्य है, तो दूसरी ओर शंख है, जिसमें युद्ध की व्यथा, कालकूट तथा नीरसता है। श्रीकृष्ण कहीं यशोदा के नटखट लाल हैं, तो कहीं द्रौपदी के रक्षक, कहीं गोपियों के मनमोहन हैं तो कहीं सुदामा के सखा।
हर रिश्ते में रंगे कृष्ण का जीवन नवरस में समाया हुआ है। उनके जन्मोत्सव पर दही-हांडी प्रतियोगिता का आयोजन होता है। यह बताता है कि स्वयं को संतुलित रखते हुए ही लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि साम्यावस्था और चित्तता का अनुशीलन ही सुखमय जीवन का मूल तत्व है। श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव हम सभी में उमंग का संचार करता है। जीवन के प्रति सृजन का उनका दृष्टिकोण मानव जीवन को मनोहर बना देता है।