
अभिनव कुमार। चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है। खासकर अपने देश में चुनाव के दौरान लोगों का उत्साह और उनकी भागीदारी देखते ही बनती है। कोरोना महामारी की चुनौतियों के बावजूद चुनाव आयोग ने जिस तरह से विभिन्न राज्यों में चुनाव करवाया, वह निश्चित रूप से प्रशंसा के योग्य है। हाल ही में बिहार में एक बार फिर से नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन सरकार बनी है जिसमें तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बनाए गए हैं। इस सरकार का भविष्य क्या होगा यह तो समय ही बताएगा? लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त तेजस्वी यादव द्वारा किए गए वादे को बिहार की जनता जरूर याद दिला रही है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव मिलकर क्या उन वादों को पूरा कर पाएंगे जो चुनाव से पहले उनके द्वारा किया गया था। इसके लिए हमें चुनावी घोषणा-पत्र से जुड़े विषय को भी समझना होगा।
लुभावने वादे
चुनाव के समय सभी पार्टियों के चुनावी घोषणा-पत्र में बहुत सारे लुभावने वादे शामिल रहते हैं। राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा-पत्र के वादों को कानूनी रूप से लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई थी। इसमें चुनाव आयोग को उन तमाम पार्टियों के चुनाव चिन्ह को जब्त करने और घोषणा-पत्र में किए गए वादों को पूरा करने में विफल रहने वाले राजनीतिक दलों का पंजीकरण तक रद करने का निर्देश देने की मांग की गई थी। ऐसे में विमर्श का विषय यह है कि क्या हमें यह सुनिश्चित नहीं करना चाहिए कि चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के द्वारा चुनावी घोषणा-पत्र में किए गए वादे को वास्तविक रूप में पूरी तरह से लागू किया जाए? दुर्भाग्य से सरकार बनते ही अधिकांश राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी घोषणा-पत्र में किए गए वादों को आम तौर पर भुला दिया जाता है। दरअसल चुनावी घोषणा-पत्र अनिवार्य रूप से उन नीतियों की एक सूची है जो एक राजनीतिक दल के द्वारा चुनाव के समय जनता के समक्ष अपने इरादों, उद्देश्यों या विचारों को चुनावी घोषणा-पत्र के रूप में प्रकाशित करती है। मतदान के बाद यदि वह पार्टी सत्ता में आती है तो उन नीतियों पर काम करेगी, ऐसा इसमें कहा जाता है।
घोषणा-पत्र और जनहित याचिका
इस संबंध में दायर एक जनहित याचिका में घोषणा-पत्र में किए गए अपने वादों को पूरा करने में विफल रहने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद करने का चुनाव आयोग को निर्देश देने की मांग की गई है। सुप्रीम कोर्ट में इस जनहित याचिका को दायर कर केंद्र और चुनाव आयोग को चुनाव घोषणा-पत्र को विनियमित करने और उसमें किए गए वादों के लिए राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाने के लिए निर्देश देने की भी मांग की गई है। साथ ही यह भी कहा गया है कि प्रत्यक्ष रूप से यह घोषित किया जाए कि चुनाव घोषणा-पत्र एक विजन डाक्यूमेंट है। यह राजनीतिक दल के इरादों, उद्देश्यों और विचारों की एक प्रकाशित घोषणा है जिसका उस राजनीतिक दल के लिए सत्ता प्राप्ति की राह में व्यापक योगदान देखा जा रहा है। इसलिए यह वैधानिक और कानूनी रूप से लागू करने वाला एक योग्य दस्तावेज भी कहा जा सकता है।
संविधान में प्रविधान
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखित पहले तीन शब्द ‘वी द पीपल’ यानी हम भारत के लोग इस बात की घोषणा करता है कि संविधान अपनी शक्ति स्वयं लोगों से प्राप्त करता है। लोकप्रिय संप्रभुता की भी यह अवधारणा है कि जन-शक्ति ही वह नींव है, जिस पर पूरा संविधान निर्भर करता है। साथ ही ‘विल आफ द पीपल’ यानी लोगों की इच्छा की बात करें तो भारत के संविधान में यह सवरेपरि है और संविधान लोगों के अधिकार के साथ-साथ उनकी इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या जनता के बीच चुनाव में किए गए घोषणा-पत्र चुनाव के बाद लागू होने चाहिए, क्योंकि इसमें जनता के साथ एक करार किया जा रहा है?
भारत के संविधान की मूल प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से यह लिखा हुआ है कि भारत में शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली है तो जनता का अधिकार है कि वह चुनाव में अपने वादे को सरकार बनने के बाद लागू करवाए। इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र का एक अनिवार्य सिद्धांत है, जो संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है, जैसाकि वर्ष 1973 में ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट के द्वारा केशवानंद भारती मामले में घोषित किया गया था।
वैसे मिथिलेश कुमार पांडे बनाम निर्वाचन आयोग और अन्य (2014) दिल्ली उच्च न्यायालय ने ब्रामली लंदन बोरो काउंसिल बनाम ग्रेटर लंदन काउंसिल (1982) के निर्णय को जिसमें हाउस आफ लार्डस में न्यायाधीश डेनिंग को कोट करते हुए कहा था, ‘एक राजनीतिक दल द्वारा जारी घोषणा-पत्र वोट पाने के लिए धार्मिक सत्यता के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। इसमें शामिल वादे ऐसे प्रस्ताव होते हैं जो अव्यवहारिक होते हैं या फिर उन्हें प्राप्त करना लगभग असंभव है।’ लेकिन साथ ही हाई कोर्ट ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में कोई ऐसा प्रविधान नहीं होने का उल्लेख किया जिससे चुनावी घोषणा-पत्र को लागू किया जा सके।
यहां यदि हम भारत के कांट्रैक्ट एक्ट, 1872 की बात करें तो उसमें भी अनुबंध के कानून की धारा 10 के अनुसार यह उल्लेख है कि अनुबंध करने वाले किसी भी व्यक्ति को किए गए वादे को अस्वीकार करने से रोक दिया जाता है और उसे इसके प्रति जवाबदेह बनाया जा सकता है। अब सवाल उठता है कि चुनावी घोषणा-पत्र को सही मानते हुए यदि जनता मतदान करती है तो क्या उसे अनुबंध मान लिया जाना चाहिए? अगर हां, तो फिर संबंधित राजनीतिक दल की सरकार बनते ही उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही तय होनी चाहिए और इसका प्रारूप तैयार किया जाना चाहिए।
साथ ही भारत के संविधान के अनुच्छेद 299 से संबंधित एक और निर्णय इस मसले पर ऐतिहासिक है। मोतीलाल पदमपत शुगर मिल्स कंपनी लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (1978) मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह निर्णय दिया गया था कि यदि वादाकर्ता एक वादा करता है और उस वादे के अनुसार अगर दूसरे पक्ष ने उसका निर्वहन करते हुए काम किया है, तो ऐसे में यदि कोई प्रतिफल या औपचारिक अनुबंध न हो तो भी वादा करने वाली सरकार जिम्मेदार होगी। अब समय आ गया है कि चुनाव आयोग इस दिशा में सुधार करने के लिए अपनी ओर से विशेष पहल करते हुए आगे बढ़े, क्योंकि जनता की यह अपेक्षा है कि चुनावी घोषणा-पत्र पर अमल भी होना चाहिए। आज के बदले हालात में चुनावी घोषणा-पत्र का चुनाव में जीत हासिल करने में एक महत्वपूर्ण योगदान हो गया है। वर्ष 1951-1952 में हुए प्रथम लोकसभा चुनाव के सात दशक से भी अधिक समय हो चुके हैं। ऐसे में चुनावी घोषणा-पत्र संबंधी सुधार को लागू करते हुए जनता की मजबूत भागीदारी और उसके अधिकार को सुनिश्चित किया जा सकेगा। इससे भारतीय लोकतंत्र और अधिक मजबूत होगा।
भारत निर्वाचन आयोग द्वारा वर्ष 2015 में चुनाव घोषणा-पत्र संबंधी एक विशेष दिशानिर्देश जारी किया गया था। इस दिशानिर्देश में चुनाव घोषणा-पत्र से संबंधित विषयों के संदर्भ में राजनीतिक दलों को निर्देश दिए गए थे, ताकि उनके द्वारा कोई अनुचित लाभ न लिया जाए। ऐसे कई उदाहरण गिनाए जा सकते हैं, जहां कई राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा-पत्रों में वादे किए हैं और चुनाव के बाद उन्हें पूरा करने में विफल रहे हैं। वर्ष 2013 में एस. सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार और अन्य (2013) के केस में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा चुनाव आयोग को चुनावी घोषणा-पत्र से संबंधित दिशानिर्देश तैयार करने का आदेश दिया गया था।
आयोग ने 12 अगस्त 2013 को चुनाव घोषणा-पत्र के लिए दिशानिर्देश तैयार करने पर नई दिल्ली के निर्वाचन सदन में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर मान्यता प्राप्त दलों के प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक की थी। इस बैठक में उस समय के सभी छह राष्ट्रीय दलों ने भाग लिया था, जबकि आमंत्रित किए गए 45 में से 24 राज्य स्तरीय दलों ने हिस्सा लिया। बैठक का आयोजन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के मद्देनजर पार्टियों के सुझाव प्राप्त करने के लिए किया गया था। उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त वी. एस. संपत ने राजनीतिक दलों को ‘बैकग्राउंड नोट’ जारी करते हुए उनके सुझाव मांगे थे। हालांकि राजनीतिक दलों के विचार मुख्य रूप से चुनाव घोषणा-पत्र और मुफ्त में दिए जाने वाले वादों के दिशानिर्देशों के व्यापक ढांचे, राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव घोषणा-पत्र जारी करने का समय एवं उसके अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग का सार्थक दिशा में प्रयास था।
केरल उच्च न्यायालय द्वारा भी शिभा एस. बनाम यूनियन आफ इंडिया (2021) मामले में कहा गया कि चुनाव से पूर्व किए गए वादों को सत्ता हासिल करने पर पूरा करना किसी भी राजनीतिक दल का एक नैतिक कर्तव्य है। इसी तरह, सरकार आम जनता के कल्याण और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मतदाताओं, उसके लोकतांत्रिक और समाजवादी आदर्श को समझाने के लिए एक राजनीतिक और लोकतांत्रिक रणनीति तैयार कर सकती है।
निश्चित रूप से चुनावी घोषणा-पत्र मतदाताओं के लिए निर्णय लेते समय राजनीतिक दलों के शासन के एजेंडे को उनके विचारों को मापने का एक सशक्त माध्यम है। यह भी कहा जा सकता है कि मतदान लेन-देन के जैसा है। एक बार जब चुनावी वादों पर वोट दिए जाते हैं तो यकीनन इसे एक कानूनी अनुबंध माना जाना चाहिए। जब कोई पार्टी चुनाव जीत कर सत्ता में आती है तो सवाल उठता है कि क्या वह घोषणा-पत्र जो एक अनुबंध का रूप ले चुका है, उसे लागू होना चाहिए या नहीं? जिस सामाजिक अनुबंध सिद्धांत के तहत सरकारें चुनी जाती हैं, क्या किए गए वादों को पूरा करने के संदर्भ में उनकी जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिए? चुनाव आयोग को भी इस बारे में नए सिरे से विचार करना चाहिए, ताकि इसका कुछ ठोस समाधान किया जा सके। (ये लेखक के निजी विचार हैं)