आकर्षित करती राजस्थानी स्थापत्य कला से बनी वाराणसी के गंगा किनारे पंचगंगा घाट पर स्थित कंगन वाली हवेली की भव्यता

वाराणसी, जागरण संवाददाता। गंगा किनारे पंचगंगा घाट पर स्थित कंगन वाली हवेली की भव्यता जितना आकर्षित करती है, उतनी ही रोचक है इसके निर्माण के पीछे की कहानी। अनायास ही काशी आने वाले पर्यटकों को अपनी भव्यता से आकर्षित करती इस हवेली की कहानी सुना रहे हैं राजेश त्रिपाठी।
करीब पांच सौ साल पहले आमेर के राजा मान सिंह की पत्नी यहां गंगा स्नान कर रही थीं, तभी उनका कंगन गंगा में गिर गया। रानी संत रामगोपाल के पास आईं। उन्होंने कहा कि गंगाजी में ढूंढि़ए कई कंगन मिलेंगे। उनमें से जो आपका होगा, उसे ले लीजिएगा। ऐसा ही हुआ। वे रामदास को कंगन देना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने नहीं लिया। फिर शिष्या बनकर गुरुदक्षिणा के रूप में रत्नजडि़त कंगन बेचकर उसी स्थान पर एक हवेली बनवा दी और उसे संत राम गोपाल को दान दे दिया। तभी से इसका नाम कंगन वाली हवेली पड़ा। रानी ने इस हवेली की देखरेख के लिए चौबेपुर के पास विनाशीपुर गांव की जमींदारी भी उन्हें दिलवाई।पांच मंजिली यह हवेली माधवराव का धरहरा (आलमगीर मस्जिद) से पश्चिम व सिंधिया परिवार द्वारा बनवाए बाला जी मंदिर के पूर्व में बीचोबीच स्थित है। इसकी शान का बखान चार बड़े आंगन, 20 बरामदे और 48 कमरे करते हैैं। लाल पत्थर से बनी यह हवेली राजस्थानी स्थापत्य कला का अप्रतिम उदाहरण है। हर मंजिल पर गंगा की ओर निर्मित कमरों में भव्य रोशनदान से अविरल गंगधार की छटा आंखों में सहज ही सहेजी जा सकती है। मुख्य द्वार से घुसते ही पहली मंजिल के आंगन में बाईं ओर राम-जानकी व हनुमान की प्रतिमा है। यहां हनुमान भगवान राम के बाण पर विराजमान हैैं।
आलमगीर मस्जिद व कंगनवाली हवेली
वर्तमान में हवेली में निवास कर रहे संत राम गोपाल के वंशज बताते हैं कि जब 1669 में औरंगजेब ने काशी के मंदिरों को तोडऩे का फरमान जारी किया तब हमारे पूर्वजों ने हवेली को बचाने के लिए औरंगजेब से इसकी रक्षा का फरमान लिखवाया जिसे बनारस कचहरी में जमा भी कर दिया गया। आज भी माधवराव का धरहरा (आलमगीर मस्जिद) व हवेली के बीच में उसी फरमान के तहत एक हाथ की जगह छोड़ी हुई दिखाई पड़ जाएगी। रामजानकी मंदिर से युक्त हवेली यथावत रही। वक्त के थपेड़ों ने इसकी आभा धूमिल जरूर की है।